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वट सावित्री व्रत कथा || Vat Savitri Vrat Katha

 

वट सावित्री व्रत कथा || Vat Savitri Vrat Katha


वट सावित्री व्रत : एक परिचय || Vat Savitri Vrat : Ek Parichay : An Introduction


ऐसा कहा जाता है कि वट सावित्री व्रत सुहागिन स्त्रियों का सबसे बड़ा त्यौहार है । ज्येष्ठ कृष्ण की अमावस्या के दिन इस व्रत को करने का विधान है। इस दिन बरगद के वृक्ष की पूजा की जाती है। इस दिन सत्यवान सावित्री के साथ-साथ यमराज की पूजा भी की जाती है। स्त्रियां इस व्रत को अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य कामना तथा उन्नति के लिए करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इसी व्रत के प्रभाव से सावित्री अपने पति सत्यवान को यमराज से मुक्त करा सकी थी। 


व्रत का विधि विधान || Vrat ka vidhi vidhan || Vat Savitri Vrat Kaise Kare


इस दिन स्त्रियां सुबह सवेरे स्नान आदि से निवृत्त होकर एक बांस की टोकरी में रेत भरकर ब्रह्मा जी की मूर्ति की स्थापना करें। उसके बाद ब्रह्मा जी के बाएं तरफ सावित्री की मूर्ति की स्थापना करें। इसी तरह एक दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्ति स्थापित करें और दोनों टोकरियों को वटवृक्ष के नीचे रखें। सर्वप्रथम ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करें उसके बाद सत्यवान एवं सावित्री की पूजा करें तथा वट वृक्ष को जल अर्पित करें। जल, फूल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया चना, गुड़ तथा धूप दीप से वट वृक्ष की पूजा करें। वट वृक्ष को जल चढ़ावें। उसके तने के चारों ओर कच्चा सूत लपेटकर तीन बार परिक्रमा करें। बरगद के पत्तों के गहने पहने एवं सावित्री की कथा सुनें। भीगे हुए चने का बायना निकालकर उस पर दक्षिणा रखकर अपनी सास को देवें एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। यदि सास दूर रहती हों तो बायना उनके पास भिजवा दें। पूजा के बाद प्रतिदिन पान, सिंदूर, कुंकुम से सुहागिन स्त्रियों की पूजा करने का भी विधान बताया गया है। पूजन के पश्चात ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि बांस के पत्ते पर रखकर दान करें। वटवृक्ष के अभाव में तस्वीर की पूजा भी कर सकते हैं।

वट सावित्री व्रत कथा || Vat Savitri Vrat Katha


बहुत समय पहले की बात है, भद्र देश में अश्‍वपति नाम के एक राजा हुए। राजा बडे धार्मिक एवं प्र‍तापी थे किन्‍तु उनके कोई सन्‍तान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों के तप के बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि हे राजन तेरे घर एक तेजस्‍वी कन्‍या का जन्‍म होगा। इस कन्‍या का जन्‍म सावित्री देवी के आशीर्वाद से होने के कारण इसका नाम सावित्री रखा गया। 


समय व्‍यतीत होने के साथ कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान हुई। योग्य वर न मिलने के कारण राजा प्राय: दु:खी रहते थे। अन्‍त में उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे जो कि राज्‍य छिन जाने के कारण वर्तमान में वनसासी के समान जीवन व्‍यतीत कर रहे थे। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।


ऋषिराज नारद को जब यह बात पता चली तो वह राजा अश्वपति के पास पहुंचे और कहा कि हे राजन! यह क्या कर रहे हैं आप? सत्यवान गुणवान हैं, धर्मात्मा हैं और बलवान भी हैं, परन्‍तु वह अल्पायु है। एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।


 ऋषिराज नारद की बात सुनकर राजा अश्वपति घोर चिंता में डूब गए। सावित्री के पूछने पर राजा ने कहा, पुत्री तुमने जिस राजकुमार को अपने वर के रूप में चुना है वह अल्पायु है। तुम्हे किसी और को अपना जीवन साथी बनाना चाहिए। इस पर सावित्री ने कहा कि पिताजी, आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती हैं, मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी। राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया।


सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा करने लगी। समय बीतता चला गया। नारद मुनि ने सावित्री को पहले ही सत्यवान की मृत्यु के दिन के बारे में बता दिया था। वह दिन जैसे-जैसे करीब आने लगा, सावित्री अधीर होने लगीं। उन्होंने तीन दिन पहले से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद मुनि द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया।


हर दिन की तरह सत्यवान उस दिन भी लकड़ी काटने जंगल चले गये साथ में सावित्री भी गईं। जंगल में पहुंचकर सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गये। तभी उसके सिर में तेज दर्द होने लगा, दर्द से व्याकुल सत्यवान पेड़ से नीचे उतर गये। सावित्री अपना भविष्य समझ गईं।


सत्यवान के सिर को गोद में रखकर सावित्री सत्यवान का सिर सहलाने लगीं। तभी वहां यमराज आते दिखे। यमराज अपने साथ सत्यवान के जीव को ले जाने लगे तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं। यमराज ने सावित्री को समझाने की कोशिश की कि यही विधि का विधान है। लेकिन सावित्री नहीं मानी।


वित्री की निष्ठा और पतिपरायणता को देख कर यमराज ने सावित्री से कहा कि हे देवी, तुम धन्य हो। तुम मुझसे कोई भी वरदान मांगो। इस पर सावित्री ने कहा कि हे देव यदि आप मुझपर प्रसन्‍न हैं तो आप मेरे सास-ससुर को दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा। जाओ अब लौट जाओ। लेकिन सावित्री अपने पति सत्यवान के पीछे-पीछे चलती रहीं। यमराज ने कहा देवी तुम वापस जाओ। सावित्री ने कहा भगवन मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है। यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिए कहा। सावित्री बोलीं हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे पुन: वापस दिला दें। यमराज ने सावित्री को यह वरदान भी दे दिया और कहा अब तुम लौट जाओ। लेकिन सावित्री पीछे-पीछे चलती रहीं। यमराज ने सावित्री को तीसरा वरदान मांगने को कहा। इस पर सावित्री ने 100 संतानों और सौभाग्य का वरदान मांगा। यमराज ने इसका वरदान भी सावित्री को दे दिया।


सावित्री ने यमराज से कहा कि प्रभु मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया है। यह सुनकर यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े। यमराज अन्‍तर्ध्‍यान हो गए और सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आ गई जहां उसके पति का मृत शरीर पड़ा था।


सत्यवान जीवित हो उठे और दोनों खुशी-खुशी अपने राज्य की ओर चल पड़े। दोनों जब घर पहुंचे तो देखा कि माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है। इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे।


वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो वो टल जाता है। 


समाप्‍त


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